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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2676
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र

प्रश्न- मथुरा कला शैली पर प्रकाश डालिए।

अथवा
मथुरा कला शैली की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
अथवा
मथुरा की कुषाण कला की बुद्धमूर्तियों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
अथवा
कुषाणकालीन मथुरा कला की मुख्य विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

उत्तर -

कुषाण काल में मूर्ति निर्माण का एक प्रसिद्ध केन्द्र मथुरा रहा। इस काल में मथुरा विभिन्न धर्मों से सम्बन्धित मूर्तियों का निर्माण हुआ। यद्यपि यहाँ पर मूर्ति निर्माण का कार्य बहुत पहले से ही होता आ रहा था लेकिन कुषाण काल में यहाँ व्यापक पैमाने पर मूर्तियों का निर्माण किया गया। कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के काल में मथुरा कला का सर्वोत्कृष्ट विकास हुआ। प्रारम्भ में यह माना जाता था कि गांधार की बौद्ध मूर्तियों के प्रभाव एवं अनुकरण पर ही मथुरा की बौद्ध मूर्तियों का निर्माण हुआ था, परन्तु अब यह स्पष्टतः सिद्ध हो चुका है कि मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ गान्धार से सर्वथा स्वतन्त्र थी तथा उनका आधार मूलरूप से भारतीय ही था। वासुदेव शरण अग्रवाल के मतानुसार सर्वप्रथम मथुरा में ही बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया जहाँ इनके लिए पर्याप्त धार्मिक आधार था। उनकी मान्यता है कि कोई मूर्ति तब तक नहीं बनायी जा सकती है जब तक उसके लिए धार्मिक मांग न हो। मूर्ति की कल्पना धार्मिक भावना की तुष्टि के लिए होती है। इस बात के प्रमाण हैं कि ई.पू. पहली शताब्दी में मथुरा भक्ति आन्दोलन का केन्द्र बन गया था जहाँ संकर्षण, वासुदेव तथा पंचवीरों की प्रतिमाओं के साथ ही साथ जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का भी पूर्ण विकास हो चुका था। इसका प्रभाव बौद्ध धर्म पर पड़ा फलस्वरूप बौद्धों को भी बुद्ध मूर्ति के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई। कनिष्क के शासनकाल में महायान बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हो गया। इसमें बुद्ध की मूर्तिरूप में पूजा किये जाने का विधान था। बौद्धों की तृप्ति अब केवल प्रतीक पूजा से नहीं हो सकती थी। उन्हें बुद्ध को मानव मूर्ति के रूप में देखने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इसी भावना से मथुरा के शिल्पियों द्वारा पहले बोधिसत्व तथा फिर बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया। जहाँ तक गांधार का प्रश्न है हमें वहाँ किसी भी प्रकार के धार्मिक आन्दोलन का प्रमाण नहीं मिलता है। यह नहीं कहा जा सकता है कि मथुरा या गांधार के किसी शिल्पी ने क्षणिक भावावेश में आकार बुद्ध मूर्ति की रचना कर ली हो। अपितु यह मानना तर्कसंगत है कि बुद्धमूर्ति रचना की पृष्ठभूमि काफी पहले से ही प्रस्तुत की गयी होगी और यह पृष्ठभूमि मथुरा के धार्मिक आन्दोलन से तैयार हुई, मथुरा से ऐसी कुछ बोधिसत्व प्रतिमाएँ मिली हैं जिन पर कनिष्क संवत की प्रारम्भिक तिथियों के लेख खुदे हैं। इसके विपरीत गांधार कला की मूर्तियों में से एक पर भी कोई परिचित संवत् नहीं है। जो तीन-चार तिथियाँ मिलती हैं उनके आधार पर गांधार कला का समय पहली से तीसरी शती ई. के बीच ठहरता है। इस प्रकार मथुरा की बौद्ध प्रतिमाएँ प्राचीनतर सिद्ध होती हैं। इस प्रसंग में एक अन्य विचारणीय बात यह है कि गान्धार मूर्तियों पर जो बौद्ध प्रतिमा लक्षण के चिन्ह जैसे पद्मासन, ध्यान, नासाग्रदृष्टि, उष्णीश आदि मिलते हैं उनका स्रोत भारतीय ही है न कि ईरानी तथा यूनानी। स्पष्टतः गांधार के शिल्पकारों ने इन प्रतिमा लक्षणों मथुरा के शिल्पियों से ही ग्रहण किया था जो उनके पूर्व इन प्रतिमा लक्षणों से युक्त बोधिसत्व तथा बुद्ध की बहुसंख्यक प्रतिमाओं का निर्माण कर चुके थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि बुद्ध मूर्तियाँ सर्वप्रथम मथुरा में ही गढ़ी गईं। यदि वे गांधार में विदेशी कलाकारों द्वारा गढ़ी गयी होती तो उनमें प्रतिमा लक्षण के विविध चिन्ह कदापि नहीं आए होते क्योंकि यूनानी तथा ईरानी कला में इन लक्षणों का अभाव था। अग्रवाल महोदय ने मथुरा की बोधिसत्व तथा बुद्ध प्रतिमाओं का स्रोत यक्ष- प्रतिमाओं को माना जाता है।

मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खड़ी तथा बैठी मुद्रा में बनी हुई मूर्तियाँ मिली हैं। उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है। बुद्ध मूर्तियों में कटरा से प्राप्त मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसे चौकी पर उत्कीर्ण लेख में बोधिसत्व की संज्ञा दी गयी है। इसमें बुद्ध को भिक्षु वेष धारण किए हुए दिखाया गया है। वे बोधिवृक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान हैं तथा उनका दायां हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। उनकी हथेली तथा तलवों पर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न के चिह्न बनाये गये हैं। बुद्ध के दोनों ओर चामर लिए हुए पुरुष हैं तथा ऊपर से देवताओं को उनके ऊपर पुष्प की वर्षा करते हुए दिखाया गया है। बुद्ध के पीछे वृत्ताकार प्रभामण्डल प्रदर्शित किया गया है। उल्लेखनीय है कि इसके पूर्व ही मूर्तियों में हमें प्रभामण्डल दिखाई नहीं देता। अनेक विद्वान इसके पीछे ईरानी प्रेरणा स्वीकार करते हैं जहाँ देव मूर्तियों के पृष्ठभाग में प्रभामण्डल बनाने की प्रथा थी। इस प्रकार समग्र रूप से यह मूर्ति कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त प्रशंसनीय हैं।

अभयमुद्रा में आसीन बुद्ध की एक मूर्ति अन्योर से मिली है जिसे 'बोधिसत्व' की संज्ञा दी गयी है। इस पर कनिष्क संवत् 51 अर्थात् 129 ई. की तिथि अंकित है।

बुद्ध मूर्तियों के अतिरिक्त मैत्रेय, काश्यप अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्व - मूर्तियाँ भी मथुरा से मिलती हैं। मैत्रेय भविष्य में अवतार लेने वाले बुद्ध हैं। मान्यता के अनुसार शाक्य बुद्ध के परिनिर्वाण के चार हजार वर्षों पश्चात् उनका जन्म होगा। मैत्रेय मूर्तियों में उनका दायाँ हाथ अभय मुद्रा में अथवा कमल नाल लिए हुए तथा बायाँ हाथ अमृत घट लिए हुए दिखाया गया है। काश्यप को सप्तमानुषी बुद्धों में गिना जाता है। इनका चित्रण भी मिलता है। वे मूर्तियाँ सफेद, चिन्तीदार, लाल एवं रवादार पत्थर से बनी हैं। गांधार मूर्तियों के विपरीत वे सभी आध्यात्मिकता एवं भावना प्रधान है। अनेक मूर्तियाँ वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं। बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ भी स्तम्भों पर मिलती हैं। जन्म, अभिषेक, महाभिनिष्क्रमण, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन, महापरिनिर्वाण आदि उनके जीवन की विविध घटनाओं का कुशलतापूर्वक अंकन मथुरा कला के शिल्पियों द्वारा किया गया है। यहाँ के कलाकारों ने ईरानी तथा यूनानी कला के कुछ प्रतीकों को भी ग्रहण कर उन पर भारतीयता का रंग चढ़ा दिया। यही कारण है कि मथुरा की कुछ बुद्ध मूर्तियों में गांधार मूर्तियों के लक्षण दिखाई देते हैं, जैसे- कुछ मूर्तियों में कुछ मूर्तियों में मूँछ तथा पैरों में चप्पल दिखायी गयी है। कुछ उपासकों की भी मूर्तियाँ हैं जो अपने हाथ जोड़े हुए तथा माला ग्रहण किए हुए प्रदर्शित किये गये हैं। कुछ दृश्य महाभारत की कथाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

मथुरा शैली में शिल्पकारी के भी सुन्दर नमूने मिलते हैं। बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त मथुरा से कनिष्क की एक सिर रहित मूर्ति मिली है जिस पर 'महाराज राजाधिराज देवपुत्रो कनिष्को' अंकित है। यह खड़ी मुद्रा में है तथा 5 फुट 7 इंच ऊँची है। राजा घुटने तक कोट पहने हुए है, उसके पैरों में भारी जूते हैं। दायाँ हाथ गदा पर टिका है तथा वह बाएँ हाथ से तलवार की मुठिया पकड़े हुए है। कला की दृष्टि से प्रतिमा उच्चकोटि की है जिसमें मूर्तिकार को सम्राट की पाषाण मूर्ति बनाने में अद्भुत सफलता मिली है। इसमें मानव शरीर का यथार्थ चित्रण दर्शनीय है। यह मूर्ति भी यूनानी कला के प्रभाव से मुक्त है। इस श्रेणी की दूसरी मूर्ति वेम तक्षम की है जो सिंहासनासीन है। सिंहासन के आगे दोनों ओर दो सिंहों की आकृतियाँ हैं। सम्राट नक्काशीदार कामदानी वस्त्र ओढ़े हुए है। इसके नीचे छोटी कोट तथा पैरों में जूते दिखाये गये हैं। शिल्प की दृष्टि से इसे सम्राट का यथार्थ रूपांकन कहा जा सकता है। मजूमदार का विचार है कि इसका निर्माता कोई ईरानी शिल्पकार था।

मथुरा के कलाकारों ने बुद्ध एवं बोधिसत्वों की मूर्तियों के अतिरिक्त हिन्दू और जैन मूर्तियों का भी निर्माण किया। हिन्दू देवताओं में विष्णु, शिव, सूर्य, कुबेर, नाग, यक्ष की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो अत्यन्त सुन्दर हैं। मथुरा तथा उसके आस-पास क्षेत्रों से अब तक चालीस से भी अधिक विष्णु मूर्तियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। अधिकांश चतुर्भुजी हैं। इनके तीन हाथ में शंख, चक्र, गदा दिखाया गया है और चौथा हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हुआ है। इनकी बनावट बोधिसत्व मैत्रेय की मूर्तियों जैसी है। उल्लेखनीय है कि विष्णु का लोकप्रिय प्रतीक पद्य मथुरा की कुषाणकालीन मूर्तियों में नहीं मिलता। कुछ मूर्तियों में गरुड़ का भी अंकन मिलता है। विष्णु के अवतारों से सम्बन्धित मूर्तियाँ प्रायः नहीं मिलती। मात्र वाराह अवतार की एक प्रतिमा तथा कृष्ण लीलाओं से सम्बन्धित दो दृश्यांकन मिले हैं। मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित एक शिलापट्ट पर बालक कृष्ण को सिर पर लादकर गोकुल ले जाते हुए वासुदेव तथा दूसरे पर कृष्ण द्वारा अश्व रूप धारण कर केशी असुर पर पैर से प्रहार करते हुए चित्रित किया गया है। वाराह प्रतिमा खण्डित अवस्था में मिलती है। इसकी छाती पर 'श्रीवत्स' प्रतीक अंकित है। शिव प्रतिमायें लिंग तथा मानव दोनों रूपों में मिलती हैं। शिवलिंग कई प्रकार के हैं जैसे एक मुखी, दो मुखी, चार मुखी, पाँचमुखी आदि। शिव के साथ उनकी अर्द्धांगिनी पार्वती की प्रतिमा पहली बार संभवतः मथुरा में ही कुषाण कलाकारों द्वारा बनायी गयी थी। मथुरा में इस समय पाशुपत सम्प्रदाय के अनुयायी बड़ी संख्या में निवास करते थे। उनमें लिंग पूजा का व्यापक प्रचलन था। यही कारण है कि यहाँ अनेक प्रकार के लिंगों का निर्माण किया गया।

मथुरा कला में सूर्य प्रतिमाओं का भी निर्माण किया गया। ईरानी प्रभाव के कारण इन्हें सर्वथा भिन्न प्रकार से तैयार किया गया है। मानव रूप से सूर्य को लम्बी कोट, पतलून तथा बूट पहने हुए दो या चार घोड़ों के रथ पर सवार दिखाया गया है। उनके सिर पर गोल तथा चपटी टोपी कंधे पर लहराते केश तथा मुँह पर नुकीली मूँछे दिखायी गयी हैं। इसी प्रकार की वेशभूषा कुषाण राजाओं की मूर्तियों में भी देखने को मिलती है। स्पष्टतः यह ईरानी परम्परा है। आर0जी0 भण्डारकर का विचार है कि भारत में सूर्य की पूजा ईरान से यहाँ आने वाले मग नामक पुरोहितों द्वारा प्रारम्भ की गई थी। हिन्दू धर्म के इन प्रमुख देवताओं के अतिरिक्त मथुरा की कुषाणकालीन कला में कार्त्तिकेय कुबेर, इन्द्र, गणेश, अग्नि आदि की मूर्तियाँ भी बनाई गई। लोक देवताओं में यक्षों, किन्नरों, नागों, गन्धर्वों आदि की प्रतिमाएँ मिलती हैं। देवी मूर्तियों में दुर्गा, लक्ष्मी, हारीति, सप्तमातृक। आदि हैं। लक्ष्मी को कमल पर बैठी हुई मुद्रा में दिखाया गया है। वी0एस0 अग्रवाल ने लक्ष्मी की एक ऐसी अनुपम मूर्ति का उल्लेख किया है जो कमलों से भरे पूर्णघट पर खड़ी हैं। अपने बाएँ हाथ में दुग्ध धारिणी मुद्रा में दूध की धार छोड़ती हुई दिखायी गयी हैं। उसके पीछे सनाल कमलों का सुन्दर चित्रण हुआ है जिसकी उठती हुई बेल पर मोर मोरनी का जोड़ा बना है। वह किसी प्रतिभाशाली कुषाण शिल्प की उत्तम कृति है। दुर्गा की चतुर्भुजी मूर्तियाँ मिलती हैं। कई मूर्तियाँ महिषमर्दिनी रूप की हैं। सप्तमातृकाओं की मूर्तियों में उन्हें साधारण वेश में घाघरा पहने हुए दिखाया गया है।

जैन मूर्तियाँ तथा आयामपट्ट - मथुरा तथा उसके समीपवर्ती भाग से जैन तीर्थंकरों की पाषाण प्रतिमायें प्राप्त हुई हैं जो अत्यन्त सुन्दर एवं कलापूर्ण हैं। जैन मूर्तियाँ दो प्रकार की हैं. खड़ी मूर्तियाँ जो कायोत्सर्ग मुद्रा में है तथा बैठी हुई मूर्तियाँ जो पद्मासन में है। खड़ी मुद्रा की मूर्तियाँ पूर्णतया नग्न हैं, उनकी भुजायें घुटनों के नीचे तक फैली हुई है तथा भौहों के बीच केशपुंज बनाया गया है। बैठी हुई मूर्तियाँ ध्यान मुद्रा में हैं तथा उनकी दृष्टि नासिका के अग्रभाग पर केन्द्रित है। इनके आसन के सामने बीच में धर्मचक्र तथा पार्श्वभाग में सिंह बनाये गये हैं। कुछ प्रतिमाओं के सिर के पीछे गोल अलंकृत प्रभामण्डल मिलता है। तीर्थंकर प्रतिमाओं के वक्षस्थल पर 'श्रीवत्स' का पवित्र मांगलिक चिह्न अंकित है। इनकी चौकी पर लेख भी उत्कीर्ण हैं। जिनसे उनकी पहचान की जा सकती है। तीर्थंकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त कंकाली टीला से आयागपट्ट अथवा पूजापट्ट मिलते हैं। जिनका कला की दृष्टि से काफी महत्त्व है। पहले इन पवित्र मांगलिक चिह्न जैसे स्वास्तिक, श्रीवत्स, चक्र, नन्दयावर्त, पूर्णघट, मंगल कलश, शंख, माला आदि बनाये जाते थे, परन्तु बाद में इन पर तीर्थंकरों की आकृतियाँ भी बनायी जाने लगीं। आयागपट्टों से प्रतीक पूजा से मूर्ति पूजा का विकास क्रम सूचित होता है। ये आयागपट स्वतन्त्र पूजा के लिए थे। इनसे पता चलता है कि प्रारम्भ में जैन धर्म में प्रतीक पूजा का प्रचलन था जिससे कालान्तर में प्रतिमा पूजा का विकास हुआ।

इस प्रकार मथुरा के कलाकारों का दृष्टिकोण असाम्प्रदायिक था और उन्होंने बौद्ध, जैन तथा हिन्दू सभी के लिए उपयोगी प्रतिमाओं को प्रस्तुत किया। अग्रवाल के शब्दों में, 'अपनी मौलिकता, सुन्दरता और रचनात्मक विविधता एवं बहुसंख्यक सृजन के कारण मथुरा कला का पद भारतीय कला में बहुत ऊँचा है। "

इस कला केन्द्र की बनी हुई मूर्तियाँ सारनाथ, श्रावस्ती तथा अन्य केन्द्रों को गया। गांधार कला के विपरीत मथुरा की कलाकृतियाँ विदेशी प्रभाव से मुक्त हैं। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इसने भरहुत और साँची के प्राचीन कला को ही आगे बढ़ाया।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- दक्षिण भारतीय कांस्य मूर्तिकला के विषय में आप क्या जानते हैं?
  2. प्रश्न- कांस्य कला (Bronze Art) के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।
  3. प्रश्न- कांस्य मूर्तिकला के विषय में बताइये। इसका उपयोग मूर्तियों एवं अन्य पात्रों में किस प्रकार किया गया है?
  4. प्रश्न- कांस्य की भौगोलिक विभाजन के आधार पर क्या विशेषतायें हैं?
  5. प्रश्न- पूर्व मौर्यकालीन कला अवशेष के विषय में आप क्या जानते हैं?
  6. प्रश्न- भारतीय मूर्तिशिल्प की पूर्व पीठिका बताइये?
  7. प्रश्न- शुंग काल के विषय में बताइये।
  8. प्रश्न- शुंग-सातवाहन काल क्यों प्रसिद्ध है? इसके अन्तर्गत साँची का स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं?
  9. प्रश्न- शुंगकालीन मूर्तिकला का प्रमुख केन्द्र भरहुत के विषय में आप क्या जानते हैं?
  10. प्रश्न- अमरावती स्तूप के विषय में आप क्या जानते हैं? उल्लेख कीजिए।
  11. प्रश्न- इक्ष्वाकु युगीन कला के अन्तर्गत नागार्जुन कोंडा का स्तूप के विषय में बताइए।
  12. प्रश्न- कुषाण काल में कलागत शैली पर प्रकाश डालिये।
  13. प्रश्न- कुषाण मूर्तिकला का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  14. प्रश्न- कुषाण कालीन सूर्य प्रतिमा पर प्रकाश डालिये।
  15. प्रश्न- गान्धार शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  16. प्रश्न- मथुरा शैली या स्थापत्य कला किसे कहते हैं?
  17. प्रश्न- गांधार कला के विभिन्न पक्षों की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- मथुरा कला शैली पर प्रकाश डालिए।
  19. प्रश्न- गांधार कला एवं मथुरा कला शैली की विभिन्नताओं पर एक विस्तृत लेख लिखिये।
  20. प्रश्न- मथुरा कला शैली की विषय वस्तु पर टिप्पणी लिखिये।
  21. प्रश्न- मथुरा कला शैली की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  22. प्रश्न- मथुरा कला शैली में निर्मित शिव मूर्तियों पर टिप्पणी लिखिए।
  23. प्रश्न- गांधार कला पर टिप्पणी लिखिए।
  24. प्रश्न- गांधार कला शैली के मुख्य लक्षण बताइये।
  25. प्रश्न- गांधार कला शैली के वर्ण विषय पर टिप्पणी लिखिए।
  26. प्रश्न- गुप्त काल का परिचय दीजिए।
  27. प्रश्न- "गुप्तकालीन कला को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है।" इस कथन की पुष्टि कीजिए।
  28. प्रश्न- अजन्ता की खोज कब और किस प्रकार हुई? इसकी प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करिये।
  29. प्रश्न- भारतीय कला में मुद्राओं का क्या महत्व है?
  30. प्रश्न- भारतीय कला में चित्रित बुद्ध का रूप एवं बौद्ध मत के विषय में अपने विचार दीजिए।
  31. प्रश्न- मध्यकालीन, सी. 600 विषय पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- यक्ष और यक्षणी प्रतिमाओं के विषय में आप क्या जानते हैं? बताइये।

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